Sunday, December 14, 2008

"मेरे सुनसान के सहचर "
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जन्मों से मेरे साथ हैं ,
सदियों से मेरे पास हैं ,
सभी चराचर ,मेरे सुनसान के सहचर /
कोई जागे कोई सोए ,
मैं जागूं जग सोए,
मैं सोऊँ जग सोए,
पर मेरी किसी को नही चिंता ,
इन्सान तो दूर मेरे पास भटकता नही परिंदा ,
वही शोर वही आवाज,
कुछ नहीं मेरे पास ,
(गाड़ियों की ,
शहर की आवाजें ) कईयों के बजन से भरा है सर ,
ये सब हैं मेरे सुनसान के सहचर,
दूर से आती मशीनों की आवाज है,
(घर का माहौल ) मेरे घर पे परिंदों का वास है,
कई जानवर मेरे आँगन में ,
करते रोज अपना वास हैं ,
आपकी तरह मुझे भी आती बास है ,
पर आपकी संवेदनाएं,
मेरी संवेदनाओं से मिलती नहीं हैं ,
मेरी खुशबु आपकी खुशबुओं से मिलती नहीं है,
मेरी चिंता करने वाले दुनिया के,लाखों,
करोड़ों में से कोई भी नहीं है,
मेरे चिंता में ख़ुद करता हूँ ,
मेरे तकलीफें में ख़ुद सहता हूँ ,
में मरूं भी,
तो कोई नहीं रोता है ,
मैं अपना वजन ख़ुद ढोता हूँ,
ओ मेरे अकेलेपन ,
मेरे हमसफ़र ,
तेरे कारन ही बने ये सब ,
मेरे सुनसान के सहचर,,_२
ऐसे सुनसान शहरी जीवन से तंग हो गया हूँ ,
मैं ख़ुद मेरे जीवन से तंग हो गया हूँ ,
बदन नंगा हो गया ,
कपड़े इतने तंग हो गए हैं,
फुटपाथों पर सोते -सोते ,
अकड़े सारे अंग हो गए हैं ,
पेटों की सिलवटें माथे की लकीर दिखती हैं ,
मेरी किस्मत ये ही लिखती हैं, (पेट भरेगा या नहीं.)
दूर से देखने पर मैं प्रेत लगता हूँ ,
रोते तड़पते एक ही बात कहता हूँ देना ,
सभी को दो रोटी और माथे पे छप्पर ,
ओ मेरे प्रभु ,
मेरे ~~ईश्वर,
ओ प्रिय,
मेरे सुनसान के सहचर,
मेरे सुनसान के सहचर,...//
अनिरुद्ध सिंह चौहान
(Anirudhkikavita.blogspot.com)

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