Thursday, December 25, 2008

ओ साथी
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ओ साथी चलो ,
हम क्षितिज के पार चलें,
जहाँ एक सुंदर सपना बैठा है इंतजार में ,
उस क्षितिज के पार चलें जहाँ शान्ति हो हर ओर,
उस क्षितिज के पार चलें,
चलो ये दुनिया छोड़कर ,
नई दुनिया में चलें,
जहाँ शान्ति हो.
ओ साथी चलो उस क्षितिज की ओर चलें|
पर ध्यान रहे कोई,
पीछे न छूटे,
वरना सपने सच नहीं हो पाएँगे,
वो टूटकर बिखर जाएँगे,
आओ दुनिया वालों हम चलें वहां,
जहाँ खुशी हो,
मुस्कान हो,
ये दुनिया बहुत सूनी सी लगती है,
वीरान सी लगती है,
हम सब एक साथ चलेंगे ,
प्यार की नाव में,
भाईचारे के साथ,
तो हम दूसरी दुनिया में ,
पहुँच जाएँगे,
क्षितिज के उस पार जहाँ,
केवल हम होंगे प्यार करने वाले और कोई नहीं,
वहां हमारे सपने सच होंगे,
हम वहां देवताओं से मिलेंगे,
जो केवल प्यार बांटते हैं,
उनसे मिलेंगे जो खुशी बांटते हैं,
हम वहां खुश रहेंगे ,
उस क्षितिज के पार चलो ,
ओ साथी उस क्षितिज के पार चलो|
अनिरुद्ध सिंह

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Sunday, December 14, 2008

"मेरे सुनसान के सहचर "
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जन्मों से मेरे साथ हैं ,
सदियों से मेरे पास हैं ,
सभी चराचर ,मेरे सुनसान के सहचर /
कोई जागे कोई सोए ,
मैं जागूं जग सोए,
मैं सोऊँ जग सोए,
पर मेरी किसी को नही चिंता ,
इन्सान तो दूर मेरे पास भटकता नही परिंदा ,
वही शोर वही आवाज,
कुछ नहीं मेरे पास ,
(गाड़ियों की ,
शहर की आवाजें ) कईयों के बजन से भरा है सर ,
ये सब हैं मेरे सुनसान के सहचर,
दूर से आती मशीनों की आवाज है,
(घर का माहौल ) मेरे घर पे परिंदों का वास है,
कई जानवर मेरे आँगन में ,
करते रोज अपना वास हैं ,
आपकी तरह मुझे भी आती बास है ,
पर आपकी संवेदनाएं,
मेरी संवेदनाओं से मिलती नहीं हैं ,
मेरी खुशबु आपकी खुशबुओं से मिलती नहीं है,
मेरी चिंता करने वाले दुनिया के,लाखों,
करोड़ों में से कोई भी नहीं है,
मेरे चिंता में ख़ुद करता हूँ ,
मेरे तकलीफें में ख़ुद सहता हूँ ,
में मरूं भी,
तो कोई नहीं रोता है ,
मैं अपना वजन ख़ुद ढोता हूँ,
ओ मेरे अकेलेपन ,
मेरे हमसफ़र ,
तेरे कारन ही बने ये सब ,
मेरे सुनसान के सहचर,,_२
ऐसे सुनसान शहरी जीवन से तंग हो गया हूँ ,
मैं ख़ुद मेरे जीवन से तंग हो गया हूँ ,
बदन नंगा हो गया ,
कपड़े इतने तंग हो गए हैं,
फुटपाथों पर सोते -सोते ,
अकड़े सारे अंग हो गए हैं ,
पेटों की सिलवटें माथे की लकीर दिखती हैं ,
मेरी किस्मत ये ही लिखती हैं, (पेट भरेगा या नहीं.)
दूर से देखने पर मैं प्रेत लगता हूँ ,
रोते तड़पते एक ही बात कहता हूँ देना ,
सभी को दो रोटी और माथे पे छप्पर ,
ओ मेरे प्रभु ,
मेरे ~~ईश्वर,
ओ प्रिय,
मेरे सुनसान के सहचर,
मेरे सुनसान के सहचर,...//
अनिरुद्ध सिंह चौहान
(Anirudhkikavita.blogspot.com)

Thursday, December 11, 2008

"घर से निकला था मैं "


एक दिन घर से निकला,
राह में ढूँढता राहगीर,
एक कोस ही चला था ,
एक मुस्कान ने मन मोह लिया,
मेरे सपने सजने लगे,
मुस्कान के मोह में खो गया,
पर जेसे ही पेड़ की छाया को सूरज ने हटा दिया,
मुस्कान की जगह एक गंभीर छाया बन गई ,
अब तक में २ कोस आ चुका था,
मुस्कान भरा चेहरा और भी गंभीर हो गया ,
मैं भी शायद थकने लगा था कि ,
बादल की किरपा से सूरज दुक सा गया था,
मुझे लगा अब सायं हो चुकी है ,
मेरे विश्राम का समय हो गया,
पर सूरज फिर आ गया,
और मुझे चलने पर मजबूर कर दिया,
अब तक मेरे साथ कुछ राहगीर आ गये थे ,
एक मेरे साथ कदम दर कदम चल रहा था,
कभी मुझे बताता तुम अकेले नहीं हो,
मैं तुम्हारे साथ हूँ ,
अब सूरज ठंडा होने लगा था,
मेरा साथी भी पीछे होने लगा था,
कुछ ने अपनी राह बदल ली थी,
कुछ छितिज पर देख रहे थे पर,
चल नही रहे थे ,
मैं आगे जा ता जा रहा था,
पर अकेला होता जा रहा था,
अब सूरज भी ढल ने लगा था,
पंछी कहीं दिख नहीं रहे थे,
सूरज ढल गया था,
रास्ता दिखना बंद हो गया था,
में भी सोचने लगा,
रुक जाऊँ,
पर किसीने कहा,
अरे ये तुम्हारी,
जगह नहीं हे ,
तुम्हें आगे जाना है ,
रास्ता तो दीखता नहीं आगे जाऊँ कैसे ,
कोई साथी नहीं आगे जाऊँ केसे,
इतना ही कहा था कि,
उजाला हो गया,
एक मेरे आगे एक राहगीर मेरे पीछे हो गया,
ये मेरे नये दोस्त थे,
जो केवल मुझे राह,
दिखा रहे थे,
हर संकट झेल रहे थे,
चलते-चलते लालिमा सी दिखने लगी थी ,
दोनों ने कहा अब हम जाते हें,
मैं उन्हें रोकता इससे पहले सूरज निकल आया था,
पर ये क्या में फिर नये जोश से भर गया था,
फिर वही मुस्कान भी दिखने लगी थी,
यही तो जीवन है चलते रहो ,
रौशनी तो अपने आप हो जाएगी,
मुस्कान अपने आप दिखने लग जायेगी
अकेलापन ही तुम्हारी जिन्दगी कि सबसे बड़ी खुशी बन जाएगी,
यही तो जीवन है चलते रहो
यही तो सत्य है .|
पता है अब तक मैं चार कोस चल चुका था,
एक जीवन जी चुका था,
अब नया जीवन लेने जा रहा था ,
मैं था अकेला ,
अकेला ही चला जा रहा था,
अकेला ही चला जा रहा था,|||


अनिरुद्ध सिंह चौहान